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सू-ए-सहरा ही मुझे ले गई वहशत मेरी | शाही शायरी
su-e-sahra hi mujhe le gai wahshat meri

ग़ज़ल

सू-ए-सहरा ही मुझे ले गई वहशत मेरी

श्याम सुंदर लाल बर्क़

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सू-ए-सहरा ही मुझे ले गई वहशत मेरी
तेरे दर पर न हुई आह सुकूनत मेरी

है मसीहाई का दा'वा तो जिला ले आ कर
दम लबों पर है ज़रा देख तो सूरत मेरी

मैं ने बाज़ार-ए-जहाँ में लिया सौदा तेरा
हुस्न-ए-यूसुफ़ पे फ़िदा क्या हो तबीअत मेरी

बाग़-ए-आलम में ग़म-ए-इश्क़ का फल राहत है
मोजिब-ए-इज़्ज़-ओ-करामत हुई ज़िल्लत मेरी

हूँ मैं आवारा-ओ-गुम-गश्ता रह-ए-मक़सद का
हज़रत-ए-ख़िज़्र से क्या होगी हिदायत मेरी

मैं मुक़ीम-ए-दर-ए-जानाँ हूँ वो तन्हा दश्त-नवर्द
जोश-ए-उल्फ़त में है क्या क़ैस से निस्बत मेरी

उड़ के पहुँचा सर-ए-गर्दूं पे बगूला बन कर
बा'द मिटने के बुलंद उतनी है हिम्मत मेरी

पास मेरे जो न आए कोई शिकवा क्या है
करती है बे-कसी-ए-इश्क़ रिफ़ाक़त मेरी

नारा-ज़न रा'द के मानिंद ग़म-ए-हिज्र से हूँ
सिफ़त-ए-'बर्क़' तड़पने की है आदत मेरी