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सू-ए-मंज़िल न जो रवाँ होंगे | शाही शायरी
su-e-manzil na jo rawan honge

ग़ज़ल

सू-ए-मंज़िल न जो रवाँ होंगे

रिफ़अत सुलतान

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सू-ए-मंज़िल न जो रवाँ होंगे
सूरत-ए-गर्द-ए-कारवाँ होंगे

लब अगर ख़ूगर-ए-फ़ुग़ाँ होंगे
दाग़-ए-दिल और भी अयाँ होंगे

दो-घड़ी हँस के बात कर हम से
फिर ख़ुदा जाने हम कहाँ होंगे

गुल्सिताँ में बहार आने दे
डाली-डाली पे आशियाँ होंगे

आह वो फ़ासले जो क़ुर्ब पे भी
मेरे और उन के दरमियाँ होंगे

हुस्न जब तक न जल्वा-गर होगा
दोनों आलम धुआँ-धुआँ होंगे

छिड़ गया फिर तिरे शबाब का ज़िक्र
दिल के अरमान फिर जवाँ होंगे

आप कहते हैं हैं तो यक़ीं है मुझे
आप भी मेरे क़द्र-दाँ होंगे

हम न होंगे मगर हमारे बा'द
अश्क इस आँख से रवाँ होंगे

वज्ह-ए-बर्बादी-ए-दिल-ए-'रिफ़अत'
आप जैसे ही क़द्र-दाँ होंगे