सू-ए-मंज़िल कोई कारवाँ लुट गया
किस की उम्मीद का ये जहाँ लुट गया
तू ने उफ़ तक न की देखता रह गया
तेरे कूचे में इक कारवाँ लुट गया
कोई हसरत न गुलचीं के दिल में रही
फूल मुरझा गए गुलिस्ताँ लुट गया
तुम तो हुशियार थे क्यूँ हुए बे-ख़बर
दिल तो नादान था ना-गहाँ लुट गया
कोई आए मदद के लिए अब मिरी
गुल-रुख़ाँ लुट गया मह-वशाँ लुट गया
है शिकायत तुझी से मिरे मेहरबाँ
पेश दरबाँ तिरा मेहमाँ लुट गया
शैख़ भी कितना 'शादाँ' बला-नोश था
बातों बातों में पीर-ए-मुग़ाँ लुट गया

ग़ज़ल
सू-ए-मंज़िल कोई कारवाँ लुट गया
शांति लाल मल्होत्रा