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सू-ए-मंज़िल कोई कारवाँ लुट गया | शाही शायरी
su-e-manzil koi karwan luT gaya

ग़ज़ल

सू-ए-मंज़िल कोई कारवाँ लुट गया

शांति लाल मल्होत्रा

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सू-ए-मंज़िल कोई कारवाँ लुट गया
किस की उम्मीद का ये जहाँ लुट गया

तू ने उफ़ तक न की देखता रह गया
तेरे कूचे में इक कारवाँ लुट गया

कोई हसरत न गुलचीं के दिल में रही
फूल मुरझा गए गुलिस्ताँ लुट गया

तुम तो हुशियार थे क्यूँ हुए बे-ख़बर
दिल तो नादान था ना-गहाँ लुट गया

कोई आए मदद के लिए अब मिरी
गुल-रुख़ाँ लुट गया मह-वशाँ लुट गया

है शिकायत तुझी से मिरे मेहरबाँ
पेश दरबाँ तिरा मेहमाँ लुट गया

शैख़ भी कितना 'शादाँ' बला-नोश था
बातों बातों में पीर-ए-मुग़ाँ लुट गया