सू-ए-मय-कदा न जाते तो कुछ और बात होती
वो निगाह से पिलाते तो कुछ और बात होती
गो हवा-ए-गुलसिताँ ने मिरे दिल की लाज रख ली
वो नक़ाब ख़ुद उठाते तो कुछ और बात होती
ये बजा कली ने खिल कर किया गुलसिताँ मोअत्तर
अगर आप मुस्कुराते तो कुछ और बात होती
ये खुले खुले से गेसू इन्हें लाख तू सँवारे
मिरे हाथ से सँवरते तो कुछ और बात होती
गो हरम के रास्ते से वो पहुँच गए ख़ुदा तक
तिरी रहगुज़र से जाते तो कुछ और बात होती
ग़ज़ल
सू-ए-मय-कदा न जाते तो कुछ और बात होती
आग़ा हश्र काश्मीरी