सुर्ख़ी बदन में रंग-ए-वफ़ा की थी कुछ दिनों
तासीर ये भी उस की दुआ की थी कुछ दिनों
ढूँडे से उस के नक़्श उलझते थे और भी
हालत तमाम कर्ब-ओ-बला की थी कुछ दिनों
काग़ज़ पे था लिखा हुआ हर हर्फ़-ए-लब-कुशा
तहरीर जिस्म-ए-सौत-ओ-अदा की थी कुछ दिनों
शाख़ों पे कोंपलों को ज़बानें अता हुईं
ये दिलबरी भी दस्त-ए-सबा की थी कुछ दिनों
दिल-सोज़ी-ए-वफ़ा को शकेबाई की अता
शाइस्तगी ये रंग-ए-हिना की थी कुछ दिनों
अब है कुदूरतों का खुला दश्त और मैं
चाहत तमाम तेरी रज़ा की थी कुछ दिनों
कैफ़ियत-ए-नशात थी ख़ुद ही से गुफ़्तुगू
'नाहीद' ये रिदा भी हया की थी कुछ दिनों
ग़ज़ल
सुर्ख़ी बदन में रंग-ए-वफ़ा की थी कुछ दिनों
किश्वर नाहीद

