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सुर्ख़ी बदन में रंग-ए-वफ़ा की थी कुछ दिनों | शाही शायरी
surKHi badan mein rang-e-wafa ki thi kuchh dinon

ग़ज़ल

सुर्ख़ी बदन में रंग-ए-वफ़ा की थी कुछ दिनों

किश्वर नाहीद

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सुर्ख़ी बदन में रंग-ए-वफ़ा की थी कुछ दिनों
तासीर ये भी उस की दुआ की थी कुछ दिनों

ढूँडे से उस के नक़्श उलझते थे और भी
हालत तमाम कर्ब-ओ-बला की थी कुछ दिनों

काग़ज़ पे था लिखा हुआ हर हर्फ़-ए-लब-कुशा
तहरीर जिस्म-ए-सौत-ओ-अदा की थी कुछ दिनों

शाख़ों पे कोंपलों को ज़बानें अता हुईं
ये दिलबरी भी दस्त-ए-सबा की थी कुछ दिनों

दिल-सोज़ी-ए-वफ़ा को शकेबाई की अता
शाइस्तगी ये रंग-ए-हिना की थी कुछ दिनों

अब है कुदूरतों का खुला दश्त और मैं
चाहत तमाम तेरी रज़ा की थी कुछ दिनों

कैफ़ियत-ए-नशात थी ख़ुद ही से गुफ़्तुगू
'नाहीद' ये रिदा भी हया की थी कुछ दिनों