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सुर्ख़ सहर से है तो बस इतना सा गिला हम लोगों का | शाही शायरी
surKH sahar se hai to bas itna sa gila hum logon ka

ग़ज़ल

सुर्ख़ सहर से है तो बस इतना सा गिला हम लोगों का

अभिषेक शुक्ला

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सुर्ख़ सहर से है तो बस इतना सा गिला हम लोगों का
हिज्र चराग़ों में फिर शब भर ख़ून जला हम लोगों का

हम वहशी थे वहशत में भी घर से कभी बाहर न रहे
जंगल जंगल फिर भी कितना नाम हुआ हम लोगों का

और तो कुछ नुक़सान हुआ हो ख़्वाब में याद नहीं है मगर
एक सितारा ज़र्ब-ए-सहर से टूट गया हम लोगों का

ये जो हम तख़्लीक़-ए-जहान-ए-नौ में लगे हैं पागल हैं
दूर से हम को देखने वाले हाथ बटा हम लोगों का

बिगड़े थे बिगड़े ही रहे और उम्र गुज़ारी मस्ती में
दुनिया दुनिया करने से जब कुछ न बना हम लोगों का

ख़ाक की शोहरत देख के हम भी ख़ाक हुए थे पल भर को
फिर तो तआक़ुब करती रही इक उम्र हवा हम लोगों का

शब भर इक आवाज़ बनाई सुब्ह हुई तो चीख़ पड़े
रोज़ का इक मामूल है अब तो ख़्वाब-ज़दा हम लोगों का