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सुराग़ भी न मिले अजनबी सदा के मुझे | शाही शायरी
suragh bhi na mile ajnabi sada ke mujhe

ग़ज़ल

सुराग़ भी न मिले अजनबी सदा के मुझे

फ़रियाद आज़र

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सुराग़ भी न मिले अजनबी सदा के मुझे
ये कौन छुप गया सहराओं में बुला के मुझे

मैं उस की बातों में ग़म अपना भूल जाता मगर
वो शख़्स रोने लगा ख़ुद हँसा हँसा के मुझे

उसे यक़ीन कि मैं जान दे न पाऊँगा
मुझे ये ख़ौफ़ कि रोएगा आज़मा के मुझे

जो दूर रह के उड़ाता रहा मज़ाक़ मिरा
क़रीब आया तो रोया गले लगा के मुझे

मैं अपनी क़ब्र में महव-ए-अज़ाब था लेकिन
ज़माना ख़ुश हुआ दीवारों पर सजा के मुझे

यहाँ किसी को कोई पूछता नहीं 'आज़र'
कहाँ पे लाई है अंधी हवा उड़ा के मुझे