सुपुर्द-ए-ग़म-ज़दगान-ए-सफ़-ए-वफ़ा हुआ मैं
पड़ा हूँ उम्र की दीवार से गिरा हुआ मैं
अजीब सोच सी और उस पे सोचता हुआ मैं
कि टूटता तिरी हैरत में आइना हुआ मैं
कहीं मैं कोह पे फ़रहाद और दश्त में क़ैस
वजूद-ए-इश्क़ में हूँ ख़ुद को ढूँढता हुआ मैं
जिसे भी मिलना है मुझ से वो इंतिज़ार करे
न जाने कब पलट आऊँ कहीं गया हुआ मैं
न मिल सका कोई अफ़्सोस वक़्त पर मुझ को
किसी को मिल न सका वक़्त से कटा हुआ मैं
तमाम हम-नफ़साँ क़त्अ कर गए मंज़िल
बस इक मुसाफ़िर-ए-रह, रह गया बचा हुआ मैं
तमाम उम्र यूँही तर्ज़-ए-बूद-ओ-बाश रही
कहीं चराग़ बना मैं कहीं हवा हुआ मैं
समझ न सहल ज़माने की गर्दिशों के बअ'द
हुआ मैं ख़ुद को फ़राहम मुझे अता हुआ मैं
अजीब कैफ़ियत-ए-इंतिशार में हूँ रवाँ
ग़ुबार सा हूँ किसी ख़ाक से उड़ा हुआ मैं
ग़ज़ल
सुपुर्द-ए-ग़म-ज़दगान-ए-सफ़-ए-वफ़ा हुआ मैं
इक़बाल कौसर