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सुना के रंज-ओ-अलम मुझ को उलझनों में न डाल | शाही शायरी
suna ke ranj-o-alam mujhko uljhanon mein na Dal

ग़ज़ल

सुना के रंज-ओ-अलम मुझ को उलझनों में न डाल

शब्बीर नाज़िश

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सुना के रंज-ओ-अलम मुझ को उलझनों में न डाल
थकन का ख़ौफ़ मिरे अज़्म की रगों में न डाल

मैं इस जहान को कुछ और देना चाहता हूँ
तू कार-ए-वक़्त के पुर-हौल चक्करों में न डाल

मलूल देख के तुझ को मैं रुक न जाऊँ कहीं
ख़ुदारा! हिज्र की शिद्दत को आँसुओं में न डाल

तिरी भलाई की ख़ातिर मुझे उतारा गया
मुझे लपेट के कपड़ों में ताक़चों में न डाल

ये हिजरतें तो मुक़द्दर हैं और मश्ग़ला भी
तू बे-घरी के हवाले से वसवसों में न डाल