सुना के रंज-ओ-अलम मुझ को उलझनों में न डाल
थकन का ख़ौफ़ मिरे अज़्म की रगों में न डाल
मैं इस जहान को कुछ और देना चाहता हूँ
तू कार-ए-वक़्त के पुर-हौल चक्करों में न डाल
मलूल देख के तुझ को मैं रुक न जाऊँ कहीं
ख़ुदारा! हिज्र की शिद्दत को आँसुओं में न डाल
तिरी भलाई की ख़ातिर मुझे उतारा गया
मुझे लपेट के कपड़ों में ताक़चों में न डाल
ये हिजरतें तो मुक़द्दर हैं और मश्ग़ला भी
तू बे-घरी के हवाले से वसवसों में न डाल
ग़ज़ल
सुना के रंज-ओ-अलम मुझ को उलझनों में न डाल
शब्बीर नाज़िश