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सुलूक देख लिया बे-हुनर हवाओं का | शाही शायरी
suluk dekh liya be-hunar hawaon ka

ग़ज़ल

सुलूक देख लिया बे-हुनर हवाओं का

मरग़ूब अली

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सुलूक देख लिया बे-हुनर हवाओं का
हर एक शाख़ है मंज़र उदास राहों का

वो चाँद बन के मिरी रात पर उतरता है
तो कैसे याद रखूँ रंग फिर क़बाओं का

न कोई नज़्म ही लिक्खी न तुझ से बात हुई
ये पूरा साल ही ठहरा मुझे सज़ाओं का

तलब रहे तो महकते हैं चाहतों के फूल
तलब मिटे तो सिला कैसा फिर वफ़ाओं का

नहीं ये कोह-ए-निदा से है कुछ अलग बस्ती
जवाब आता नहीं लौट कर सदाओं का