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सुलगती रेत पे आँखें भी ज़ेर-ए-पा रखना | शाही शायरी
sulagti ret pe aankhen bhi zer-e-pa rakhna

ग़ज़ल

सुलगती रेत पे आँखें भी ज़ेर-ए-पा रखना

किश्वर नाहीद

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सुलगती रेत पे आँखें भी ज़ेर-ए-पा रखना
नहीं है सहल हवा से मुक़ाबला रखना

उसे ये ज़ोम कि आग़ोश-ए-गुल भी उस की है
जो चाहता है परिंदों को बे-नवा रखना

सुबुक न हो ये निगह-दारी-ए-जुनूँ हम से
ये देखने को उसे सामने बिठा रखना

बिखर न जाना जराहत-नवाज़ी-ए-शब पर
मशाम-ए-जाँ को अभी ख़्वाब आश्ना रखना

वो फ़ुर्सतें कि जिन्हें आहटों की ख़्वाहिश हो
उन्हें जरस की तमन्ना से मा-सिवा रखना

तमाम मंज़र-ए-जाँ उस की ख़्वाहिशों से बना
वो ख़्वाब है तो उसे ख़्वाब में सजा रखना

उदासियों को तो आँगन ही चाहिए ख़ाली
छतों पे चाँदनी रातों का सिलसिला रखना

वो जब भी आया बहुत तेज़ बारिशों जैसा
वो जिस ने चाहा मुझे सुरमई घटा रखना

बस इक चराग़ मसाफ़त का बोझ सह लेगा
सुख़न के बीच तलबगारी-ए-वफ़ा रखना