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सुलगती रेत में इक चेहरा आब सा चमका | शाही शायरी
sulagti ret mein ek chehra aab sa chamka

ग़ज़ल

सुलगती रेत में इक चेहरा आब सा चमका

बृजेश अम्बर

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सुलगती रेत में इक चेहरा आब सा चमका
उदास आँखों में जीने का हौसला चमका

अँधेरी रात में ये किस का नक़्श-ए-पा चमका
मुसाफ़िरों की निगाहों में रास्ता चमका

शब-ए-फ़िराक़ में कोई सितारा टूटा तो
हमारी सोच में अन-जाना वसवसा चमका

फ़ज़ा में फैल गए कितने याद के जुगनू
दयार-ए-शौक़ में जब कोई रत-जगा चमका

उदासियों के अँधेरे डरा रहे थे मुझे
कि हाफ़िज़े में अचानक तिरा कहा चमका

बिखर रही है ख़यालों में ख़्वाब की ख़ुशबू
वजूद बन के कहाँ कोई ख़ुश-अदा चमका

छुपाए छुप न सका मैं तो भीड़ में 'अम्बर'
न जाने कैसे मुझी पर वो दायरा चमका