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सुलग रही है ज़मीं या सिपहर आँखों में | शाही शायरी
sulag rahi hai zamin ya siphar aankhon mein

ग़ज़ल

सुलग रही है ज़मीं या सिपहर आँखों में

क़ैशर शमीम

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सुलग रही है ज़मीं या सिपहर आँखों में
धुआँ धुआँ सा है क्यूँ तेरा शहर आँखों में

खुले दरीचे के बाहर है कौन सा मौसम
कि आग भरने लगी सर्द लहर आँखों में

कहाँ है नींद कि हम ख़्वाब देखें अमृत का
जो शाम गुज़री है उस का है ज़हर आँखों में

ख़फ़ा हुए भी किसी से तो क्या किया हम ने
बहुत हुआ तो रहा दिल का क़हर आँखों में

कोई उतारने बैठे तो हाथ जल जाए
खिंची है अब के वो तस्वीर-ए-दहर आँखों में

वही है प्यास का मंज़र वही लहू 'क़ैसर'
हनूज़ फिरती है कोने की नहर आँखों में