EN اردو
सुकूत-ए-शाम समुंदर परिंदगाँ सूरज | शाही शायरी
sukut-e-sham samundar parindagan suraj

ग़ज़ल

सुकूत-ए-शाम समुंदर परिंदगाँ सूरज

मोहम्मद अली मंज़र

;

सुकूत-ए-शाम समुंदर परिंदगाँ सूरज
ये लम्हा लम्हा बदलता हुआ जहाँ सूरज

फ़सील-ए-शहर-ए-शिकस्ता के मिट गए आसार
गुज़िश्ता अहद की कहता है दास्ताँ सूरज

समुंदरों के सफ़र पर हुए रवाना जब
हमारे साथ चला मिस्ल-ए-बादबाँ सूरज

वो मौजें मारता दरिया या रेग-ए-सहरा है
अजीब ढंग से लेता है इम्तिहाँ सूरज

ज़मीं पे रंग हैं जितने सभी इसी से हैं
हमारे सर पे चमकता है मेहरबाँ सूरज