सुकूत-ए-शाम का हिस्सा तू मत बना मुझ को
मैं रंग हूँ सो किसी मौज में मिला मुझ को
मैं इन दिनों तिरी आँखों के इख़्तियार में हूँ
जमाल-ए-सब्ज़ किसी तजरबे में ला मुझ को
मैं बूढ़े जिस्म की ज़िल्लत उठा नहीं सकता
किसी क़दीम तजल्ली से कर नया मुझ को
मैं अपने होने की तकमील चाहता हूँ सखी
सो अब बदन की हिरासत से कर रिहा मुझ को
मुझे चराग़ की हैरत भी हो चुकी मालूम
अब इस से आगे कोई रास्ता बता मुझ को
उस इस्म-ए-ख़ास की तरकीब से बना हूँ मैं
मोहब्बतों के तलफ़्फ़ुज़ से कर नया मुझ को
दरून-ए-सीना जिसे दिल समझ रहा था 'अली'
वो नीली आग है ये अब पता चला मुझ को
ग़ज़ल
सुकूत-ए-शाम का हिस्सा तू मत बना मुझ को
अली ज़रयून