सुकूँ-परवर है जज़्बाती नहीं है
मिरा हमदम ख़ुराफ़ाती नहीं है
जो करता था चराग़ाँ सब के घर में
उसी के घर दिया-बाती नहीं है
मिरा महबूब है महबूब-ए-कामिल
मिरा महबूब जज़्बाती नहीं है
तअल्लुक़ रख के भी है बे-तअल्लुक़
समझ में बात ये आती नहीं है
जिसे रास आ गई उज़्लत-नशीनी
तबीअ'त उस की घबराती नहीं है
पशेमानी है वो तेरे जुनूँ की
मिरे घर आ के जो जाती नहीं है
उसी ग़म में सदा रहता हूँ हमदम
तिरा जज़्बा इनायाती नहीं है
मुझे 'इबरत' ख़ुशी इस बात की है
तिरा मस्लक रिवायाती नहीं है

ग़ज़ल
सुकूँ-परवर है जज़्बाती नहीं है
इबरत बहराईची