EN اردو
सुकूँ पाया तबीअ'त ने न दिल को ही क़रार आया | शाही शायरी
sukun paya tabiat ne na dil ko hi qarar aaya

ग़ज़ल

सुकूँ पाया तबीअ'त ने न दिल को ही क़रार आया

जुंबिश ख़ैराबादी

;

सुकूँ पाया तबीअ'त ने न दिल को ही क़रार आया
जो आँसू आँख में आया बड़ा बे-ए'तिबार आया

किसी का बाँकपन सारे ज़माने में पुकार आया
चमक आँखों में आई नोक-ए-मिज़्गाँ पर निखार आया

मुक़द्दर अपना अपना है गुल-ओ-शबनम की वादी में
कोई हँसता हुआ आया तो कोई अश्क-बार आया

मुझे क्या वास्ता है आप के हुस्न-ए-तख़य्युल से
मिरी आँखों पे जब आया मिरे ख़्वाबों को प्यार आया

तिरी बे-इल्तिफ़ाती को ख़ुदा रखे कि ऐ साक़ी
शराब-ए-ग़म से हम तिश्ना-लबों पर भी ख़ुमार आया

हुए हैं रंग-ओ-बू दस्त-ओ-गरेबाँ ऐसे गुलशन में
नसीम-ए-सुब्ह का दामन भी हो कर तार तार आया

धुआँ जो बे-कसों की आह का उट्ठा तो ऐ 'जुम्बिश'
चमन वाले पुकार उट्ठे कि वो अब्र-ए-बहार आया