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सुकूँ का एक भी लम्हा जो दिल को मिलता है | शाही शायरी
sukun ka ek bhi lamha jo dil ko milta hai

ग़ज़ल

सुकूँ का एक भी लम्हा जो दिल को मिलता है

शाहीन सिद्दीक़ी

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सुकूँ का एक भी लम्हा जो दिल को मिलता है
ये दिल ख़याल की वादी में जा निकलता है

ये रौशनी मिरे दिल में तिरे ख़यालों की
कि इक चराग़ सा वीराँ-कदे में जलता है

महक रही है तिरी याद की कली ऐसे
कि फूल जैसे बयाबाँ में कोई खिलता है

ख़ला में मेरी नज़र जब कहीं अटकती है
तिरे वजूद का पैकर वहीं पे ढलता है

नज़र में तारे से 'शाहीं' चमकने लगते हैं
ये दिल जो शिद्दत-ए-जज़्बात से मचलता है