सुकून-ए-ज़ात वक़्फ़-ए-इंतिशार कर लिया गया
ग़ज़ब हुआ कि दिल का ए'तिबार कर लिया गया
क़दम क़दम मिले जो आबले रह-ए-हयात में
तो आँसुओं को मिस्ल-ए-आबशार कर लिया गया
उमीद-ए-सुब्ह-ओ-शाम ग़म के दरमियाँ बसर जो की
तो साअ'तों को दर्द में शुमार कर लिया गया
मिला फ़रेब-ओ-मक्र से भी कब वो हीला जो मगर
लिबास सादगी का दाग़-दार कर लिया गया
नकीर ने मदद बड़ी हिसाब रख के की मिरी
गुनह तमाम उम्र बे-शुमार कर लिया गया
ज़बान-ओ-जिस्म-ओ-जान-ओ-दिल गवाह सब जो बन गए
तो जुर्म उन से हो के दरकिनार कर लिया गया
गवाह अदलिया सुबूत हाशियों पे आ गए
हिकायतों पे ऐसे ए'तिबार कर लिया गया
ज़बान-ए-हाल मुंतख़ब हुई बयान-ए-दर्द को
वजूद आप अपना तार-तार कर लिया गया
गराँ ज़मीन-ए-किश्त-ए-ग़म-ए-जिगर को नक़्द की अदा
मसर्रतों का वहम था उधार कर लिया गया
जो एक जाम 'फ़रहत'-ए-हयात की उमीद था
सितम ये है कि वो भी कल पुकार कर लिया गया
ग़ज़ल
सुकून-ए-ज़ात वक़्फ़-ए-इंतिशार कर लिया गया
फ़रहत नादिर रिज़्वी