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सुकून-ए-दिल में वो बन के जब इंतिशार उतरा तो मैं ने देखा | शाही शायरी
sukun-e-dil mein wo ban ke jab intishaar utra to maine dekha

ग़ज़ल

सुकून-ए-दिल में वो बन के जब इंतिशार उतरा तो मैं ने देखा

ताहिर फ़राज़

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सुकून-ए-दिल में वो बन के जब इंतिशार उतरा तो मैं ने देखा
न देखता पर लहू में वो बार बार उतरा तो मैं ने देखा

न आँसुओं ही में वो चमक थी न दिल की धड़कन में वो कसक थी
सहर के होते ही नश्शा-ए-हिज्र-ए-यार उतरा तो मैं ने देखा

उदास आँखों से तक रहा था मुझे वो छूटा हुआ किनारा
शिकस्ता कश्ती से जब मैं दरिया के पार उतरा तो मैं ने देखा

जो बर्फ़ आँखों में जम चुकी थी वो धीरे धीरे पिघल रही थी
जब आइने में वो मेरा आईना-दार उतरा तो मैं ने देखा

थे जितने वहम-ओ-गुमान वो सब नई हक़ीक़त में ढल चुके थे
इक आदमी पर कलाम-ए-परवरदिगार उतरा तो मैं ने देखा

न जाने कब से सिसक रहा था क़रीब आते झिजक रहा था
मकाँ की दहलीज़ से वो जब अश्क-बार उतरा तो मैं ने देखा

ख़याल-ए-जानाँ तिरी बदौलत 'फ़राज़' है कितना ख़ूबसूरत
दिमाग़-ओ-दिल से हक़ीक़तों का ग़ुबार उतरा तो मैं ने देखा