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सुख़न-वरी का बहाना बनाता रहता हूँ | शाही शायरी
suKHan-wari ka bahana banata rahta hun

ग़ज़ल

सुख़न-वरी का बहाना बनाता रहता हूँ

असअ'द बदायुनी

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सुख़न-वरी का बहाना बनाता रहता हूँ
तिरा फ़साना तुझी को सुनाता रहता हूँ

मैं अपने आप से शर्मिंदा हूँ न दुनिया से
जो दिल में आता है होंटों पे लाता रहता हूँ

पुराने घर की शिकस्ता छतों से उकता कर
नए मकान का नक़्शा बनाता रहता हूँ

मिरे वजूद में आबाद हैं कई जंगल
जहाँ मैं हू की सदाएँ लगाता रहता हूँ

मिरे ख़ुदा यही मसरूफ़ियत बहुत है मुझे
तिरे चराग़ जलाता बुझाता रहता हूँ