सुख़न का उस से यारा भी नहीं है
सुख़न के बिन गुज़ारा भी नहीं है
बयाँ शे'रों में हम करते हैं जितना
वो इस दर्जा तो प्यारा भी नहीं है
बहुत शिकवे हैं उस को ज़िंदगी से
मगर मरना गवारा भी नहीं है
नज़र में जितनी हैरानी है उतना
अनोखा तो नज़ारा भी नहीं है
लिबास-ए-जाँ तुझे वापस तो दे दूँ
मगर इक क़र्ज़ उतारा भी नहीं है
निकल आए दिल-ए-वीराँ की जानिब
कोई क़िस्मत का मारा भी नहीं है
सहारा उस का लेना पड़ गया है
जो ख़ुद अपना सहारा भी नहीं है
जिसे 'ज़ीशान' बढ़ कर रोकना था
उसे मैं ने पुकारा भी नहीं है
ग़ज़ल
सुख़न का उस से यारा भी नहीं है
ज़िशान इलाही