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सुबुक सा दर्द था उठता रहा जो ज़ख़्मों से | शाही शायरी
subuk sa dard tha uThta raha jo zaKHmon se

ग़ज़ल

सुबुक सा दर्द था उठता रहा जो ज़ख़्मों से

असलम हबीब

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सुबुक सा दर्द था उठता रहा जो ज़ख़्मों से
तो हम भी करते रहे छेड़-छाड़ अश्कों से

सभी को ज़ख़्म-ए-तमन्ना दिखा के देख लिए
ख़ुदा से दाद मिली और न उस के बंदों से

धुआँ सा उठने लगा फ़िक्र-ओ-फ़न के ऐवाँ में
लहू की बास सी आने लगी है शे'रों से

अब इन से देखिए कब मंज़िलें हुवैदा हों
उठा के लाया हूँ कुछ नक़्श तेरी राहों से

बिलक रहा है निगाहों में हसरतों का हुजूम
लटक रही हैं पतंगें उदास खम्बों से

अब और किस से तिरे ग़म का तज़्किरा करते
तमाम-रात रही गुफ़्तुगू सितारों से

बस एक जस्त में अफ़्लाक से निकल जाऊँ
फलाँग जाऊँ ज़मीं को मैं चार क़दमों से