सुब्ह को चैन न हो शाम को आराम न हो
इस से बेहतर है मिरी सुब्ह न हो शाम न हो
महफ़िल-ए-दौर-ए-ग़ज़ल सर्फ़-ए-मय-ओ-जाम न हो
ज़िंदगी मेरी भला कैसे बद-अंजाम न हो
हर घड़ी सामने है सिलसिला-ए-दार-ओ-रसन
तुझ सा ज़ालिम कोई ऐ गर्दिश-ए-अय्याम न हो
ना-मुरादी की शिकायत ज़रा ये तो सोचें
ना-मुरादी ही कहीं इश्क़ का इनआम न हो
मुझ को दुनिया से है उम्मीद वफ़ा की अब तक
कोई भी इस तरह सर-गश्ता-ए-औहाम न हो
शौक़ है तुझ को ज़माने में तिरा नाम रहे
और मुझे डर है मोहब्बत मिरी बद-नाम न हो
कोई दिन जाता है महफ़िल में बिखर जाएगी
अपनी हालत पे परेशाँ दिल-ए-नाकाम न हो
तू ने कब इश्क़ में अच्छा बुरा सोचा 'सरवर'
कैसे मुमकिन है कि तेरा बुरा अंजाम न हो
ग़ज़ल
सुब्ह को चैन न हो शाम को आराम न हो
सरवर आलम राज़