सुब्ह-ए-रौशन को अंधेरों से भरी शाम न दे
दिल के रिश्ते को मिरी जान कोई नाम न दे
मोड़ आते ही मुझे छोड़ के जाने वाले
फिर से तन्हाइयाँ बे-चैनियाँ कोहराम न दे
मुझ को मत बाँध वफ़ादारी की ज़ंजीरों में
मैं कि बादल हूँ भटक जाने का इल्ज़ाम न दे
मुतमइन दोनों हैं मैं और मेरी तर्ज़-ए-हयात
तिश्नगी मेरे मुआफ़िक़ है कोई जाम न दे
आसमाँ देने का ऐ दोस्त दिखावा मत कर
मुझ को उड़ने की इजाज़त तू तह-ए-दाम न दे
हाँ निभाए हैं मोहब्बत के फ़राएज़ मैं ने
मुस्तहिक़ भी हूँ मगर कोई भी इनआम न दे
दिल के अफ़्साने का आग़ाज़ हसीं है 'मीता'
सिलसिला यूँही चले कोई भी अंजाम न दे
ग़ज़ल
सुब्ह-ए-रौशन को अंधेरों से भरी शाम न दे
अमीता परसुराम 'मीता'