सुब्ह-ए-नौ लाती है हर शाम तुम्हें क्या मा'लूम
ज़ख़्म ख़ुशियों के हैं पैग़ाम तुम्हें क्या मा'लूम
भूल कर भी जो किसी बज़्म में आया न गया
सैंकड़ों उस पे हैं इल्ज़ाम तुम्हें क्या मा'लूम
लोग गुलशन में तो चलते हैं सर-अफ़राज़ी से
उन में कितने हैं तह-ए-दाम तुम्हें क्या मा'लूम
कुछ अँधेरे भी ख़तावार-ए-तबाही हैं मगर
रौशनी पर भी है इल्ज़ाम तुम्हें क्या मा'लूम
जिस को तुम ढूँडते हो शम-ए-रुख़-ए-नाज़ लिए
वो तो अर्से से है गुमनाम तुम्हें क्या मा'लूम
जो रुख़-ए-ज़ीस्त पे था हर्फ़-ए-ग़लत की मानिंद
मिल रहा है उसे इनआ'म तुम्हें क्या मा'लूम
जो कफ़न बाँध के चलते हैं वफ़ा की रह में
ज़िंदगी कर चुके नीलाम तुम्हें क्या मा'लूम
सुर्ख़-रू कौन हुआ कूचा-ए-जानाँ में कभी
नामवर भी हुए बदनाम तुम्हें क्या मा'लूम
दो क़दम भी न चले राह-ए-वफ़ा में हम लोग
है अभी ज़ौक़-ए-तलब ख़ाम तुम्हें क्या मा'लूम
जो जला रात की तन्हाई में उस पर भी 'ख़याल'
बेवफ़ाई का है इल्ज़ाम तुम्हें क्या मा'लूम
ग़ज़ल
सुब्ह-ए-नौ लाती है हर शाम तुम्हें क्या मा'लूम
फ़ैज़ुल हसन