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सुब्ह-ए-दरख़्शाँ अपने वतन में ख़्वाब-ए-परेशाँ अपने वतन में | शाही शायरी
subh-e-daraKHshan apne watan mein KHwab-e-pareshan apne watan mein

ग़ज़ल

सुब्ह-ए-दरख़्शाँ अपने वतन में ख़्वाब-ए-परेशाँ अपने वतन में

नाजिर अल हुसैनी

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सुब्ह-ए-दरख़्शाँ अपने वतन में ख़्वाब-ए-परेशाँ अपने वतन में
कैफ़-ए-मुसलसल रक़्स-ए-बहाराँ जल्वा-ए-ख़ंदाँ अपने वतन में

डूब रही है नब्ज़-ए-हस्ती टूट रहा है साँस का जादू
लैल-ओ-नहार-ए-ज़ीस्त यही है दर्द है दरमाँ अपने वतन में

अहल-ए-जुनूँ को फ़ाक़ा-मस्ती अहल-ए-ख़िरद को इशरत-ए-हस्ती
देख के ये तौक़ीर-ए-इंसाँ अक़्ल है हैराँ अपने वतन में

आज हवस का नाम मोहब्बत और मोहब्बत वज्ह-ए-कुल्फ़त
ख़ुल्क़ है महँगा अपने वतन में प्यार है अर्ज़ां अपने वतन में

दिल में कसक और लब पर आहें आँख में आँसू सर में सौदा
हुस्न की दुनिया ख़ंदाँ ख़ंदाँ इश्क़ है गिर्यां अपने वतन में

भूल जा 'नाज़िर' अपना माज़ी ऐश-ए-गुज़िश्ता ख़्वाब था गोया
तेरे मुक़द्दर में है ठोकर तू है परेशाँ अपने वतन में