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सुब्ह-ए-बहार-ओ-शाम-ए-ख़िज़ाँ कुछ न कुछ तो हो | शाही शायरी
subh-e-bahaar-o-sham-e-KHizan kuchh na kuchh to ho

ग़ज़ल

सुब्ह-ए-बहार-ओ-शाम-ए-ख़िज़ाँ कुछ न कुछ तो हो

ताब असलम

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सुब्ह-ए-बहार-ओ-शाम-ए-ख़िज़ाँ कुछ न कुछ तो हो
बे-नाम ज़िंदगी का निशाँ कुछ न कुछ तो हो

ख़ामोशियों की आग में जलता है मय-कदा
दिल-दादगान-ए-शो'ला-रुख़ाँ कुछ न कुछ तो हो

जीने के वास्ते कोई सूरत तो चाहिए
हो शम-ए-अंजुमन कि धुआँ कुछ न कुछ तो हो

चुप चुप है मौज और किनारे उदास हैं
ऐ ज़िंदगी के सैल-ए-रवाँ कुछ न कुछ तो हो

सुब्ह-ए-अज़ल का रूप कि शाम-ए-अबद का गीत
साया हो धूप हो कि गुमाँ कुछ न कुछ तो हो

साक़ी नए चराग़ मुबारक तुझे मगर
जो बुझ चुके हैं उन का बयाँ कुछ न कुछ तो हो

कोई हसीन गीत कोई रस-भरी ग़ज़ल
यारो इलाज-ए-ग़म-ज़दगाँ कुछ न कुछ तो हो

माना कि 'ताब' यूँ भी गुज़र जाएगी मगर
ज़िक्र-ए-जमाल-ए-गुल-बदनाँ कुछ न कुछ तो हो