सुब्ह-ए-बहार-ओ-शाम-ए-ख़िज़ाँ कुछ न कुछ तो हो
बे-नाम ज़िंदगी का निशाँ कुछ न कुछ तो हो
ख़ामोशियों की आग में जलता है मय-कदा
दिल-दादगान-ए-शो'ला-रुख़ाँ कुछ न कुछ तो हो
जीने के वास्ते कोई सूरत तो चाहिए
हो शम-ए-अंजुमन कि धुआँ कुछ न कुछ तो हो
चुप चुप है मौज और किनारे उदास हैं
ऐ ज़िंदगी के सैल-ए-रवाँ कुछ न कुछ तो हो
सुब्ह-ए-अज़ल का रूप कि शाम-ए-अबद का गीत
साया हो धूप हो कि गुमाँ कुछ न कुछ तो हो
साक़ी नए चराग़ मुबारक तुझे मगर
जो बुझ चुके हैं उन का बयाँ कुछ न कुछ तो हो
कोई हसीन गीत कोई रस-भरी ग़ज़ल
यारो इलाज-ए-ग़म-ज़दगाँ कुछ न कुछ तो हो
माना कि 'ताब' यूँ भी गुज़र जाएगी मगर
ज़िक्र-ए-जमाल-ए-गुल-बदनाँ कुछ न कुछ तो हो

ग़ज़ल
सुब्ह-ए-बहार-ओ-शाम-ए-ख़िज़ाँ कुछ न कुछ तो हो
ताब असलम