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सुब्ह-दम भी यूँ फ़सुर्दा हो गया | शाही शायरी
subh-dam bhi yun fasurda ho gaya

ग़ज़ल

सुब्ह-दम भी यूँ फ़सुर्दा हो गया

सलाम मछली शहरी

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सुब्ह-दम भी यूँ फ़सुर्दा हो गया
ऐ दिल-ए-नाज़ुक तुझे क्या हो गया

सीना-ए-बरबत से जो शोला उठा
ग़म-ज़दों के दिल का नग़्मा हो गया

शुक्रिया ऐ गर्दिश-ए-जाम-ए-शराब
मैं भरी महफ़िल में तन्हा हो गया

रात दिल को था सहर का इंतिज़ार
अब ये ग़म है क्यूँ सवेरा हो गया

पूछिए उस से ग़म-ए-साज़-ए-ख़ुलूस
चार ही दिन में जो रुस्वा हो गया

बुझ गई कुछ इस तरह शम्-ए-'सलाम'
जैसे इक बीमार अच्छा हो गया