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सुब्ह आती है तो अख़बार से लग जाते हैं | शाही शायरी
subh aati hai to aKHbar se lag jate hain

ग़ज़ल

सुब्ह आती है तो अख़बार से लग जाते हैं

अज़ीज़ प्रीहार

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सुब्ह आती है तो अख़बार से लग जाते हैं
शाम जो ढलती है बाज़ार से लग जाते हैं

इश्क़ में और भला इस के सिवा क्या होगा
दर से उठते हैं तो दीवार से लग जाते हैं

जब घड़ी आती है इंसाफ़ की धीरे धीरे
जुर्म आ कर सभी हक़दार से लग जाते हैं

हिज्र में तेरे तो इक चुप सी लगी रहती है
वस्ल में बातों के अम्बार से लग जाते हैं

वक़्त आता है जो सूली से उतरने का मिरी
सच सिमट कर मिरी गुफ़्तार से लग जाते हैं

अब के मौसम भी अजब है तिरी बातों जैसा
सुन के बातें तिरी अश्जार से लग जाते हैं

खोल देती है हवस पहले तो छोटी सी दुकाँ
देखते देखते बाज़ार से लग जाते हैं

ख़्वाब है, झूट है, माया है या कोई वरदान
हम तो सब भूल के संसार से लग जाते हैं