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सोज़-ए-दिल भी नहीं सुकूँ भी है | शाही शायरी
soz-e-dil bhi nahin sukun bhi hai

ग़ज़ल

सोज़-ए-दिल भी नहीं सुकूँ भी है

ज़िया जालंधरी

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सोज़-ए-दिल भी नहीं सुकूँ भी है
ज़िंदगानी वबाल यूँ भी है

तिरी ख़्वाहिश और इस क़दर ख़्वाहिश
वज्ह-ए-हासिल सही जुनूँ भी है

ख़ुश भी है इल्तिफ़ात-ए-दोस्त से दिल
ग़ैरत-ए-इश्क़ सर-निगूँ भी है

जल के बुझ भी गई 'ज़िया' अक्सर
आग सीने में जूँ की तूँ भी है