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सोचिए हम से तग़ाफ़ुल भी बजा है कि नहीं | शाही शायरी
sochiye humse taghaful bhi baja hai ki nahin

ग़ज़ल

सोचिए हम से तग़ाफ़ुल भी बजा है कि नहीं

राज़ यज़दानी

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सोचिए हम से तग़ाफ़ुल भी बजा है कि नहीं
कि यही मक़्सद-ए-अर्बाब-ए-फ़ना है कि नहीं

ज़ीस्त में लम्हा-ए-अंदोह-जफ़ा है कि नहीं
ऐ मोहब्बत कोई तेरी भी ख़ता है कि नहीं

पस्त कर देते हैं मौजों को उभरने वाले
डूबना ख़ुद न उभरने की सज़ा है कि नहीं

छाँव में फूलों की आँखें तो मिची जाती हैं
कौन देखे ये चमन जाग चुका है कि नहीं

हाँ मिरे इश्क़ ने सोचे थे बड़े हंगामे
तू ने छुप छुप के सहारा भी दिया है कि नहीं

क्या ग़लत इश्क़ को है जुर्म-ए-वफ़ा का इक़रार
हुस्न पर ज़हमत-ए-बेदाद-ओ-जफ़ा है कि नहीं

तुझ को बेदारी-ए-गुलशन की क़सम है कि बहार
ज़ेहन-ए-इंसाँ भी कहीं जाग रहा है कि नहीं

सब हैं शाहिद के भुलाने का बहाना कर के
मैं ने हर वक़्त तिरा नाम लिया है कि नहीं

किस को जीने से है फ़ुर्सत जो ये सोचे कि मुझे
कोई काम और भी जीने के सिवा है कि नहीं

शुक्रिया आप के एहसास-ए-जफ़ा का लेकिन
ये करम फ़ित्ना-ए-आग़ाज़-ए-जफ़ा है कि नहीं

है अभी फ़ैसला बाक़ी कि दिलों पर अब तक
आप से कोई सितम हो भी सका है कि नहीं

राज़ फूलों पे बहारों का करम है लेकिन
यूँ भी कलियों का जिगर चाक हुआ है कि नहीं