EN اردو
सोच का ज़हर न अब शाम-ओ-सहर दे कोई | शाही शायरी
soch ka zahr na ab sham-o-sahar de koi

ग़ज़ल

सोच का ज़हर न अब शाम-ओ-सहर दे कोई

तनवीर सामानी

;

सोच का ज़हर न अब शाम-ओ-सहर दे कोई
आम है बे-ख़बरी ऐसी ख़बर दे कोई

सैर-ए-आफ़ाक़ हो क्यूँ मश्ग़ला-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र
काश मेरे पर-ए-पर्वाज़ कतर दे कोई

दूर तक बिखरा हुआ रेत की सूरत है वजूद
ख़ुद को आवाज़ इधर दे कि उधर दे कोई

मेरे अल्फ़ाज़ न कर पाए मआनी को असीर
कितने दरियाओं को इक कूज़े में भर दे कोई

मुन्कशिफ़ जिस से हों असरार मिरी हस्ती के
जाने कब मुझ को वो इरफ़ान-ओ-नज़र दे कोई