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सो रहा हूँ मैं कि ये जागा हुआ सा ख़्वाब है | शाही शायरी
so raha hun main ki ye jaga hua sa KHwab hai

ग़ज़ल

सो रहा हूँ मैं कि ये जागा हुआ सा ख़्वाब है

काविश बद्री

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सो रहा हूँ मैं कि ये जागा हुआ सा ख़्वाब है
ला-शुऊरी वुसअतों में ऊँघता सा ख़्वाब है

मुख़्तसर हैं ज़िंदगी के दिन मगर रातें तवील
बेवफ़ा आँखों को हासिल बा-वफ़ा सा ख़्वाब है

एक मंज़र को मुकम्मल देखता है कौन अब
कोई सुनता है कहाँ क्या गूँजता सा ख़्वाब है

नाग है साया-फ़गन सर पर हूँ मैं महव-ए-ख़िराम
मुझ अपाहिज को मयस्सर शंकर-आसा ख़्वाब है

शाइरी में अन्फ़ुस ओ आफ़ाक़ मुबहम हैं अभी
इस्तिआरा ही हक़ीक़त में ख़ुदा सा ख़्वाब है

ख़ाम है 'काविश' हमारा ख़्वाब दिन में देखना
शैख़-चिल्ली और सब का बे-तुका सा ख़्वाब है