EN اردو
सो गया ओढ़ के फिर शब की क़बाएँ सूरज | शाही शायरी
so gaya oDh ke phir shab ki qabaen suraj

ग़ज़ल

सो गया ओढ़ के फिर शब की क़बाएँ सूरज

शहबाज़ ख़्वाजा

;

सो गया ओढ़ के फिर शब की क़बाएँ सूरज
जिन के दामन पे छिड़कता था ज़ियाएँ सूरज

आज तक राख समेटी नहीं जाती अपनी
हम ने चाहा था हथेली पे सजाएँ सूरज

आँख बुझ जाए तो इक जैसे हैं सारे मंज़र
अपनी बीनाई के दम से हैं घटाएँ सूरज

मेरी पलकों पे लरज़ते हुए आँसू मोती
मेरे बुझते हुए होंटों पे दुआएँ सूरज

ज़िंदगी जिन की हो सहरा की मसाफ़त 'शहबाज़'
ऐसे लोगों को कभी रास न आएँ सूरज