EN اردو
सियह बिस्तर पड़े हैं सुब्ह-ए-नज़्ज़ारा उतर आए | शाही शायरी
siyah bistar paDe hain subh-e-nazzara utar aae

ग़ज़ल

सियह बिस्तर पड़े हैं सुब्ह-ए-नज़्ज़ारा उतर आए

ज़काउद्दीन शायाँ

;

सियह बिस्तर पड़े हैं सुब्ह-ए-नज़्ज़ारा उतर आए
कि शब को ज़ीना ज़ीना कोई मह-पारा उतर आए

सवार-ए-ग़म रवाँ हैं खोल दो इशरत-कदों के दर
ख़बर क्या कौन अंधेरे का थका-हारा उतर आए

अजब डर है मटीली वादियाँ ऊपर को तकती हैं
किसी तूफ़ान की सूरत न तय्यारा उतर आए

दमक उट्ठे मिरी सुब्हों में वो हँसता हुआ चेहरा
मिरी रातों में उन आँखों का ग़म सारा उतर आए

हक़ीक़त की शरर-अंगेज़ियों में गुफ़्तुगू उस की
ज़बाँ खोलूँ तो जैसे लब पे अँगारा उतर आए

दरख़्शाँ बाज़ुओं की हल्क़ा हल्क़ा सुर्ख़ सी मौजें
हमारे ख़ून से शोलों का फव्वारा उतर आए

तमाशे बहर की सतहों पे मौजों के भी क्या कम हैं
कि ऊपर से हवाओं की अदा-कारा उतर आए