सियाही ढल के पलकों पर भी आए
कोई लम्हा धनक बन कर भी आए
गुलाबी सीढ़ियों से चाँद उतरे
ख़िराम-ए-नाज़ का मंज़र भी आए
लहू रिश्तों का अब जमने लगा है
कोई सैलाब मेरे घर भी आए
मैं अपनी फ़िक्र का कोह-ए-निदा हूँ
कोई हातिम मिरे अंदर भी आए
मैं अपने आप का क़ातिल हूँ 'अजमल'
मिरा आसेब अब बाहर भी आए
ग़ज़ल
सियाही ढल के पलकों पर भी आए
कबीर अजमल