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सियाही ढल के पलकों पर भी आए | शाही शायरी
siyahi Dhal ke palkon par bhi aae

ग़ज़ल

सियाही ढल के पलकों पर भी आए

कबीर अजमल

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सियाही ढल के पलकों पर भी आए
कोई लम्हा धनक बन कर भी आए

गुलाबी सीढ़ियों से चाँद उतरे
ख़िराम-ए-नाज़ का मंज़र भी आए

लहू रिश्तों का अब जमने लगा है
कोई सैलाब मेरे घर भी आए

मैं अपनी फ़िक्र का कोह-ए-निदा हूँ
कोई हातिम मिरे अंदर भी आए

मैं अपने आप का क़ातिल हूँ 'अजमल'
मिरा आसेब अब बाहर भी आए