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सियाह सफ़्हा-ए-हस्ती पे मैं उभर न सका | शाही शायरी
siyah safha-e-hasti pe main ubhar na saka

ग़ज़ल

सियाह सफ़्हा-ए-हस्ती पे मैं उभर न सका

शाहिद कलीम

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सियाह सफ़्हा-ए-हस्ती पे मैं उभर न सका
मिरी शबीह में कोई भी रंग भर न सका

हर एक राह थी मसदूद कोहसारों में
बुलंदियों से किसी तरह मैं उतर न सका

बुरे दिनों का मैं इक ख़ौफ़नाक मंज़र हूँ
मुझे कभी भी कोई शख़्स याद कर न सका

नुकीले ख़ार थे शीशे थे संग-रेज़े थे
रह-ए-हयात से बे-दाग़ मैं गुज़र न सका

पुकारता रहा मुझ को कोई मगर 'शाहिद'
मैं मौज-ए-बहर था पल भर कहीं ठहर न सका