सिवाए रहमत-ए-रब कुछ नहीं है
बहुत कुछ था मगर अब कुछ नहीं है
जहाँ मैं हूँ मगर क्या जानिए क्यूँ
मुझे दुनिया से मतलब कुछ नहीं है
ये वक़्त-ए-नज़अ' है क्या नज़्र दूँ मैं
अब आए हो यहाँ जब कुछ नहीं है
अँधेरे में वो सूझी ये न सूझी
तिरी शब है मिरी शब कुछ नहीं है
फ़क़त तक़दीर की काया पलट है
मुनासिब और इंसब कुछ नहीं है
न पूछो दिल से उस की राह का हाल
सिवा-ए-इश्क़ मज़हब कुछ नहीं है
न हो गर शाम-ए-हिज्राँ के बराबर
तू बहर-ए-वस्ल इक शब कुछ नहीं है
पस-ए-दिल अब कहाँ आबादी-ए-दहर
जो सब कुछ था वही सब कुछ नहीं है
ख़ुदा का वास्ता क्या दूँ उसे मैं
जहाँ मैं जिस का मज़हब कुछ नहीं है
चमन था जब चमन था आशियाँ भी
वहीं था मैं जहाँ अब कुछ नहीं है
मुहस्सल नज़्म-ए-'साक़िब' का न पूछो
फ़क़त लफ़्ज़ें हैं मतलब कुछ नहीं है

ग़ज़ल
सिवाए रहमत-ए-रब कुछ नहीं है
साक़िब लखनवी