सिवा है हद से अब एहसास की गिरानी भी
गिराँ गुज़रने लगी उन की मेहरबानी भी
किस एहतिमाम से पढ़ते रहे सहीफ़ा-ए-ज़ीस्त
चलें कि ख़त्म हुई अब तो वो कहानी भी
लिखो तो ख़ून-ए-जिगर से हवा की लहरों पर
ये दास्ताँ अनोखी भी है पुरानी भी
किसी तरह से भी वो गौहर-ए-तलब न मिला
हज़ार बार लुटाई है ज़िंदगानी भी
हमीं से अंजुमन-ए-इश्क़ मो'तबर ठहरी
हमीं को सौंपी गई ग़म की पासबानी भी
ये क्या अजब कि वही बहर-ए-नीस्ती में गिरी
नफ़्स की मौज में मस्ती भी थी रवानी भी
शुऊर ओ फ़िक्र से आगे है चश्मा-ए-तख़्लीक़
हटेगा संग तो बहने लगेगा पानी भी
ग़ज़ल
सिवा है हद से अब एहसास की गिरानी भी
ज़ाहिदा ज़ैदी