EN اردو
सितम-ज़रीफ़ी की सूरत निकल ही आती है | शाही शायरी
sitam-zarifi ki surat nikal hi aati hai

ग़ज़ल

सितम-ज़रीफ़ी की सूरत निकल ही आती है

तफ़ज़ील अहमद

;

सितम-ज़रीफ़ी की सूरत निकल ही आती है
रक़ीब की भी ज़रूरत निकल ही आती है

क़दम रखें तो कहाँ आब-ओ-रेग-ओ-ख़ाक पे हम
सभी जगह कोई तुर्बत निकल ही आती है

हिसाब-ए-क़ुर्ब-ओ-कशिश कर के क्यूँ हों शर्मिंदा
मिरे लहू की तो क़ीमत निकल ही आती है

है पुल-सिरात की ही बू-निसाई राह-ए-जहाँ
यहाँ भी हश्र की हालत निकल ही आती है

बड़े ज़माने से हूँ दुश्मनों की आँखों में
किसी में चश्म-ए-मुरव्वत निकल ही आती है

मैं मिर्कज़ा हूँ मगर मिर्कज़ा भँवर का हूँ
किसी भी मौज से क़ुर्बत निकल ही आती है

ये शाइ'री है पड़ोसी के पत्थरों के सबब
तराशता हूँ तो जिद्दत निकल ही आती है