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सिर्फ़ उन के कूचे में जाँ बिछा के चलते हैं | शाही शायरी
sirf un ke kuche mein jaan bichha ke chalte hain

ग़ज़ल

सिर्फ़ उन के कूचे में जाँ बिछा के चलते हैं

सईद अहमद अख़्तर

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सिर्फ़ उन के कूचे में जाँ बिछा के चलते हैं
वर्ना चाहने वाले सर उठा के चलते हैं

क्या गुनह हुआ उन से क्यूँ तिरी गली के लोग
अपने घर के अंदर भी मुँह छुपा के चलते हैं

हाँ ख़ुदा भी हो शायद कोई अपनी बस्ती का
हुक्म उस जगह सारे नाख़ुदा के चलते हैं

ज़ख़्म भी नहीं लगते ख़ून भी नहीं बहता
तीर उस की महफ़िल में किस बला के चलते हैं

शाम को उन्हें 'अख़्तर' गुलिस्ताँ में देखेंगे
जब वो अपनी ज़ुल्फ़ों में दिल सजा के चलते हैं