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सिर्फ़ थोड़ी सी है अना मुझ में | शाही शायरी
sirf thoDi si hai ana mujh mein

ग़ज़ल

सिर्फ़ थोड़ी सी है अना मुझ में

सुहैल अख़्तर

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सिर्फ़ थोड़ी सी है अना मुझ में
वर्ना बाक़ी है बस ख़ला मुझ में

अंदर अंदर मुझे ये खाती है
एक भूकी सी है बला मुझ में

ढह रहा हूँ मैं इक खंडर की तरह
इक भटकती है आत्मा मुझ में

अब हर इक बात पर मैं राज़ी हूँ
जाने ये कौन मर गया मुझ में

मेरी आवारगी से घबरा कर
मुड़ गया मेरा रास्ता मुझ में

देख कर मुझ को इस क़दर ख़ामोश
एक दरिया उतर गया मुझ में

मैं ने क़ाबू में उस को रक्खा है
वो जो रहता है सर-फिरा मुझ में

मैं था ऐसा कहाँ 'सुहैल' कभी
अब तो है कोई दूसरा मुझ में