सिर्फ़ ख़ाका उभर रहा है अभी
कोई चेहरा कहाँ बना है अभी
रेज़ा रेज़ा बिखरती आँखों में
घर का सपना बसा हुआ है अभी
कैसे कह दूँ बदल गया मौसम
ज़ख़्म दिल में सजा हुआ है अभी
किन रुतों का हिसाब दूँ उस को
सब्ज़ मौसम कहाँ मिला है अभी
रात आधी गुज़र चुकी है मगर
इक दरीचा खुला हुआ है अभी
शमएँ सब बुझ गईं ख़मोश है रात
और दिल है कि जागता है अभी
क्या मिलें तुझ से तू ने ख़ुद को 'निगार'
मो'तबर ही कहाँ किया है अभी

ग़ज़ल
सिर्फ़ ख़ाका उभर रहा है अभी
निगार अज़ीम