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सिर्फ़ कहने को कोई अज़्मत-निशाँ बनता नहीं | शाही शायरी
sirf kahne ko koi azmat-nishan banta nahin

ग़ज़ल

सिर्फ़ कहने को कोई अज़्मत-निशाँ बनता नहीं

असद जाफ़री

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सिर्फ़ कहने को कोई अज़्मत-निशाँ बनता नहीं
चंद क़तरों से तो बहर-ए-बे-कराँ बनता नहीं

चार छे फूलों से अपने घर का गुलदस्ता सजा
चार छे फूलों से हरगिज़ गुलिस्ताँ बनता नहीं

कारवाँ का पास है तुझ को तो पानी पर न चल
ये वो जादा है जहाँ कोई निशाँ बनता नहीं

बे-सर-ओ-सामाँ परिंदो काश तुम ये सोचते
कौन सी शाख़ें हैं जिन पर आशियाँ बनता नहीं

किस क़दर ना-क़ाबिल-ए-इदराक है मेरी ज़बाँ
कोई इस बस्ती में मेरा हम-ज़बाँ बनता नहीं