सीनों में तपिश है कभी शोरिश है सरों में
क्या चीज़ बसा दी गई मिट्टी के घरों में
चलता हूँ सदा साथ लिए अपनी फ़सीलें
पहचान सका कौन मुझे हम-सफ़रों में
उड़ना है तो तहज़ीब करो सोज़-ए-दरूँ की
ये वर्ना कहीं आग लगा दे न परों में
ग़ैरों में हुई आम तिरी दौलत-ए-दीदार
इक कोहल-ए-बसर था कि लुटा बे-बसरों में
दो-गाम पे तुम ख़ुद से बिछड़ जाते हो 'ख़ुर्शीद'
और लोग समझते हैं तुम्हें राहबरों में
ग़ज़ल
सीनों में तपिश है कभी शोरिश है सरों में
ख़ुर्शीद रिज़वी

