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सीने पर रख हिजरत का पत्थर चुप-चाप | शाही शायरी
sine par rakh hijrat ka patthar chup-chap

ग़ज़ल

सीने पर रख हिजरत का पत्थर चुप-चाप

परवीन कुमार अश्क

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सीने पर रख हिजरत का पत्थर चुप-चाप
घर में रह और छोड़ दे अपना घर चुप-चाप

चीख़ चीख़ कर मौजें मुझे बुलाती थीं
मैं डूबा तो बैठ गया सागर चुप-चाप

मैं सहरा के बंद मकाँ में रहता हूँ
ख़ुशबू कहाँ से आती है अंदर चुप-चाप

गोरा-चट्टा रूप वो काला जादू था
मुझ पर फूँक के भाग गया मंतर चुप-चाप

मैं ने अपना सीना चीर के दिखलाया
लौट गए क्यूँ दर्द के सौदागर चुप-चाप

मेरे आँसू पीने शाम को इक चिड़िया
मेरी गोद में आ बैठे उड़ कर चुप-चाप

इक तन्हा है 'अश्क' जो बोले जाता है
सब अंदर ख़ामोश हैं सब बाहर चुप-चाप