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सीने में कसक बन के उतरने के लिए है | शाही शायरी
sine mein kasak ban ke utarne ke liye hai

ग़ज़ल

सीने में कसक बन के उतरने के लिए है

मख़मूर सईदी

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सीने में कसक बन के उतरने के लिए है
हर लम्हा-ए-हासिल कि गुज़रने के लिए है

सँवरेगा न इस शाम सर-ए-आईना कोई
ये शाम तो तेरे ही सँवरने के लिए है

नामूस-ए-गुलिस्ताँ का तक़ाज़ा सही कुछ भी
ख़ुश्बू तो मगर क़ैद न करने के लिए है

तुम रेत में चाहो तो उसे खे न सकोगे
कश्ती जो समुंदर में उतरने के लिए है

कुछ और नहीं दिल की तमन्नाओं का हासिल
इस शाख़ का हर फूल बिखरने के लिए है

सोई हुई हर टीस कभी जाग उठेगी
जो ज़ख़्म है इस दिल में न भरने के लिए है

तस्वीर-ए-ग़म-ए-दिल न कभी मांद पड़ेगी
मिटता हुआ हर नक़्श उभरने के लिए है

ये क़ाफ़िला-ए-उम्र-ए-रवाँ राह-ए-तलब पर
दो-चार क़दम चल के ठहरने के लिए है

'मख़मूर' ये दुनिया वो रसद-गाह-ए-अजल है
ज़िंदा है यहाँ कोई तो मरने के लिए है