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सीने में आग आँख सू-ए-दर लगी रहे | शाही शायरी
sine mein aag aankh su-e-dar lagi rahe

ग़ज़ल

सीने में आग आँख सू-ए-दर लगी रहे

सय्यद अाग़ा अली महर

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सीने में आग आँख सू-ए-दर लगी रहे
काम इंतिज़ार-ए-यार में ऐ दिल यही रहे

पहलू के साथ चाक-ए-जिगर भी ज़रूर है
ख़ंजर के साथ एक क़रौली लगी रहे

दावत मह-ए-सियाम की लाज़िम है ज़ाहिदो
दस बीस रोज़ मश्ग़ला-ए-मय-कशी रहे

ऐ तिफ़्ल डर है चश्म-ए-बद-ए-पीर-ए-चर्ख़ का
हैकल ज़रूर तेरे गले में पड़ी रहे

सो लुत्फ़-ए-वस्ल उठाएँगे इक और ले के नींद
एहसान है जो मुर्ग़-ए-सहर चुप अभी रहे

तीन आसमानों से नहीं छुपता है आफ़्ताब
कब इक नक़ाब से तिरी सूरत छिपी रहे

आओ न मेरे घर तो न जाओ किसी के घर
मेरी ख़ुशी रहे न तुम्हारी ख़ुशी रहे

सोने के वक़्त ऐ गुल-ए-तर इत्र क्या ज़रूर
तेरी गली में रात को चम्पा-कली रहे

हुक्म-ए-शराब दे तो दुआ दूँ कि ऐ फ़क़ीह
मस्तों के हाथ से तिरी इज़्ज़त बची रहे

ये ग़र्रा-ए-रजब से वफ़ूर-ए-शराब हो
ख़ाली के बा'द तक भी तबीअत भरी रहे

ख़ाली न कोई शे'र हो बंदिश के नूर से
ऐ 'मेहर' आलम-ए-ग़ज़ल-ए-'अनवरी' रहे