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सीने के दाग़ उन को दिखाए न जा सके | शाही शायरी
sine ke dagh un ko dikhae na ja sake

ग़ज़ल

सीने के दाग़ उन को दिखाए न जा सके

वली मदनी

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सीने के दाग़ उन को दिखाए न जा सके
मुझ से फ़साने ग़म के सुनाए न जा सके

ऐसे नगर में मेरा मुक़द्दर हुआ मुक़ीम
जिस में ख़ुशी के दीप जलाए न जा सके

ऐवान-ए-सब्र आज ज़मीं-बोस हो गया
पलकों में अश्क मुझ से छुपाए न जा सके

हम ने तो ख़ून-ए-दिल से खिलाए हैं गुलिस्ताँ
तुम से तो ख़ार-ओ-ख़स भी उगाए न जा सके

गुलशन जो था ख़ुलूस का यकसर झुलस गया
जब नफ़रतों के शोले बुझाए न जा सके

बार-ए-गराँ उठाता रहा हूँ मगर 'वली'
एहसाँ किसी के मुझ से उठाए न जा सके